सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र को धर्म कहा हैआचार्य समय सागर जी महाराज

  • तब कहीं जाकर उसको मोक्ष मार्ग की संज्ञा दी जाती है। सम्यक दर्शन के साथ वह चल रहा है इसलिए उसका उपयोग शुभयोग माना गया है

कुंडलपुर दमोह ।सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में युग श्रेष्ठ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य पूज्य आचार्य श्री समय सागर जी महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा प्रधानं सर्व धर्माणाम जैनम जयतु शासनम ऐसा कहा गया है ।संसार में अपनी अपनी मान्यता को लिए हुए संसारी प्राणी संसार में परिभ्रमण कर रहा है ।धर्म का अर्थ स्वरूप हुआ करता है स्वरूप की ओर दृष्टि जानी चाहिए चाहे वह वैवागिक धर्म हो चाहे स्वाभाविक धर्म हो धर्म तो धर्म माना जाता है उसका परिणाम अपने-अपने धर्म के अनुरूप निकलता है ।

मिथ्यात्व रूप जो भाव है वह भी आत्मा का ही धर्म है। क्योंकि उसको भी स्वतत्व कहा है ऐसा नहीं समझना चाहिए मिथ्या रूप भाव परतत्व है। स्वतत्व ही है आत्मगत भाव है असाधारण तत्व के भाव के अनुरूप लिया है।

हमें चिंतन करना होगा उसको आगम के आधार से समझना होगा क्योंकि आचार्य समन्तभद्र महाराज ने स्पष्ट कर दिया है श्रावकाचार ग्रंथ में कि सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र इन तीनों को धर्म की संज्ञा दी है ।पृथक रूप से सम्यक दर्शन भी धर्म है ,सम्यक ज्ञान भी धर्म नाम पाता है और सम्यक चारित्र तो है ही। लेकिन धर्म और मोक्ष मार्ग इनमें थोड़ा सा अंतर देखने मिलता है। चतुर्थ गुणस्थान में वह धर्म की उपासना कर रहा है क्योंकि सम्यक दर्शन के साथ उसका जीवन चल रहा है किंतु वह मोक्षमार्गी नहीं है ।मोक्ष मार्ग जो होता है वह पर्टिकुलर किसी धर्म को लेकर नहीं होता है इसमें तीनों समाहित होते हैं तब कहीं जाकर उसको मोक्ष मार्ग की संज्ञा दी जाती है। सम्यक दर्शन के साथ वह चल रहा है इसलिए उसका उपयोग शुभयोग माना गया है । चारित्र का अभाव होने के कारण उसको अग्रति ऐसा कहा है । अग्रति का अर्थ हमें समझना चाहिए मिथ्या दृष्टि के आचरण में और अग्रसम दृष्टि के आचरण में बड़ा अंतर है

।सम्यक दर्शन तो है उसके पास आचरण कहां है तभी तो उन्होंने अग्रति ऐसा कहा है।किंतु सम्यक दर्शन के साथ उसका आचरण भी बना रहता है जिसको कुंदकुंद स्वामी ने सम्यक आचरण चारित्र की संज्ञा दी है। सम्यक आचरण चारित्र अलग है और स्वयं आचरण चारित्र अलग है । स्वयं आचरण चारित्र के दो भेद किए हैं दोनों प्रकार के चरित्र सकल और विकल से वह दूर है सम्यक दर्शन के अनुरूप उसका आचरण है इस अपेक्षा से उसको सम्यक आचरण की संज्ञा दी है ।फिर मिथ्या दृष्टि के आचरण में और अगत दृष्टि के आचरण में अंतर क्या है इस अंतर को समझना है तो गुरुदेव ने अच्छा उदाहरण दिया है।

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सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र को धर्म कहा हैआचार्य समय सागर जी महाराज

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