स्वामी विवेकानंद ने परतंत्र भारत को उसके गौरवशाली अतीत का बोध कराया (डॉ नरेंद्र कुमार सिंह गौर)
असंख्य युवाओं के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद जयंती पर ट्रांसपोर्ट नगर में कार्यक्रम आयोजित किया गया — अभिषेक गुप्ता
मुख्य अतिथि के रूप में पूर्व कैबिनेट मंत्री डॉ नरेन्द्र सिंह गौर जी ने कहा कि स्वामी विवेकानंद को उनकी जयन्ती पर याद करना उस महामनीषी को स्मरण करना है, जिसने परतंत्र भारत को उसके गौरवशाली अतीत का बोध कराया, योग और हिंदुत्व की प्रायः विस्मृत कड़ी को विश्व के समक्ष इस ढंग से रखा कि समस्त विश्व भारतीय संस्कृति की दैदीप्यमान आभा में नतमस्तक होने लगा। उन्होंने महसूस किया कि भारतवासियों की परतंत्रता और दुर्व्यवस्था का मूल कारण यह है कि उन्हें अपने गौरवशाली अतीत का भान नहीं है और पाश्चात्य शिक्षा के कारण वे भारतीयता की विरासत से कटते जा रहे हैं, परतंत्रता के कारण उनका आत्मविश्वास डगमगा रहा है। उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह समझ लिया कि सुषुप्त भारतीय सिंहों को राष्ट्रवाद की ओर ले जाने का रास्ता भारतीय संस्कृति के गौरवशाली अतीत के स्मरण से ही मिल सकता है। अनेक इतिहासवेत्ताओं का अभिमत है कि भारत के स्वाधीनता संग्राम को जो चिंगारी सन 1857 के बाद मंद पड़ गई थी उसे पुनः प्रज्वलित करने का कार्य स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों एवं ओजपूर्ण विचारों से संभव हुआ। इन अर्थों में वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम को गति प्रदान करने वाली विभूति कहे जा सकते हैं। 11 सितम्बर सन 1893 को आर्ट इंस्टीटयूट आफ शिकागो की धर्मसंसद के माध्यम से भारत की तब तक अल्पज्ञात अज्ञात संस्कृति को विश्वपटल पर रखकर उन्होंने असंख्य विदेशियों को भारतीय संस्कृति के प्रति आकृष्ट किया, जिसके परिणामस्वरूप आज भारत की संस्कृति का डंका सम्पूर्ण विश्व में बज रहा है। उन्होंने हिन्दू संस्कृति को अपने तार्किक विचारों से उस विदेशी जनता के समक्ष पेश किया जिसके मन में हिन्दू संस्कृति के प्रति अनेक पूर्वाग्रह विद्यमान थे।इससे पहले उन्होंने आत्मचिंतन तथा अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस से पर्याप्त तर्क वितर्क करते हुए अपनी समस्त शंकाओं का समाधान किया और उसके बाद ही वे भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार हेतु सक्रिय हुए। आज देश जिस प्रकार के झंझावातों में उमड़-घुमड़ रहा है, ऐसे में स्वामी विवेकानंद जैसे युगबोधक की महती आवश्यकता है जो आज के युवा वर्ग में पुनः कर्त्तव्य और राष्ट्र चिंतन के मन्त्र फूंक सके।
सचिव श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी और अलोपशंकरी मंदिर के प्रबंधक महंत यमुनापुरी जी ने स्वामी विवेकानंद जयंती पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि शुभ संकल्प, विशुद्ध अंतःकरण, धैर्य-साहस, उत्साह और पुरूषार्थ से संसार के कठिन से कठिन कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं, इसलिए मन को शुभ संकल्पों से भावित रखें। शुभता परमात्मा की प्रथम विभूति है। सुसंस्कार-आध्यात्मिक विचार एवं दिव्य जीवन का अंकुरण बाह्यन्तर शुचिता-पवित्रता से ही संभव है। पवित्रता दैवत्व के आरोहण और पात्रता के विकास में सहायक उपक्रम है। अध्यात्म का बीज पवित्र अन्तःकरण के संस्पर्श में ही विकसित -अंकुरित होता है। अतः मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्र रहें।अध्यात्म में जिन तत्वों को प्रधानता दी जाती है, वह है – अन्तःकरण की पवित्रता और मन की एकाग्रता। सही कहा जाये तो दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इतने पर भी श्रेष्ठ और सर्वोपरि “पवित्रता” ही है। इसे अध्यात्म का पर्याय भी कहा जा सकता है। यही वह आधार है जिस पर एकाग्रता फलती फूलती है। अन्तःकरण की निर्मलता मनुष्य को बाह्य गतिविधियों सहिष्णु भाव, मुखाकृति में सौम्यता और व्यवहार में उदारमना होने से परिलक्षित होती है। आप दूसरों से यदि सम्मान और सहयोग पाना चाहते हैं तो इसका एक ही उपाय है, अपना अन्तःकरण छल रहित बनाइये। उज्ज्वल व्यक्तित्व की यही परख है कि व्यक्ति का अन्तरात्मा कितना पवित्र है। धरती में देवत्व का विकास और दनुजता का विनाश हो इसके लिये पवित्र अंतःकरण के व्यक्तियों की अधिकता होना आवश्यक है। देवत्व के विकास का प्रथम सोपान मानव का निर्मल अन्तःकरण ही माना गया है। इसके बिना अणु से विभु, लघु से महान बनने की अभिलाषा अधूरी ही बनी रहेगी। अपवित्र अन्तःकरण बना रहा तो दिव्य दृष्टि का उदय होना असम्भव है। आन्तरिक निर्मलता एवं पवित्रता में वह शक्ति है जो अन्य साधनों के अभाव में भी जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करा सके। संसार में समय-समय पर जितने भी समाज सुधारक और महापुरुष हुये हैं उन सब ने मानव-समाज में सुख-शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये इस बात पर अधिक बल दिया है कि लोगों के अन्तःकरण निर्मल एवं पवित्र बनें। महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर, गुरुनानकदेव, कबीरदास, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये व्यापक जनक्रान्तियाँ कीं। सामाजिक-उत्थान का आधार भी यही है कि अधिकाधिक लोग पवित्र-अन्तःकरण वाले हों। मनुष्य के अन्तःकरण में आसुरी और दैवीय दोनों शक्तियाँ कार्य करती हैं। दुष्प्रवृत्तियाँ आसुरी प्रकृति के लोगों में होती हैं और सद्प्रवृत्तियाँ दिव्य स्वभाव के लोगों में पाई जाती है। विचारवान दूरदर्शी एवं आदर्शवादी लोगों का जब किसी राष्ट्र में बाहुल्य होता है तो वहाँ सुख-समृद्धि की परिस्थितियाँ आते देर नहीं लगती, किन्तु यदि दुष्ट दुराचारी अन्तःकरण के नर पिशाचों की ही अधिकता बनी रही तो मानव-समाज नारकीय यंत्रणाओं में ही फँसा रहेगा। सदाचारी व्यक्ति सुखद परिस्थितियों का निर्माण करते हैं, पर अपवित्र और दूषित अन्तःकरण के व्यक्ति औरों को केवल पीड़ा ही दे सकते हैं। जब कोई व्यक्ति गम्भीरतापूर्वक आत्म निरीक्षण करता है तो उसे अपने दोष-दुर्गुण सहज ही दिखाई देने लगते हैं। विचारशील मनुष्य ऐसे प्रयत्न करता है कि वह बुराइयों से बचा रहे, क्योंकि वे ही उसके लक्ष्य सिद्धि के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। अन्तःकरण की निर्मलता में विक्षेप पैदा करने वाली आसुरी प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य को कुकर्मों की ओर प्रेरित करती रहती हैं। यदि इनसे बचने का प्रयत्न किया जाये तो मनुष्य सहजता में ही अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। आप यदि ईर्ष्या द्वेष की, आलस्य और प्रमाद, वासना और अहंकार की तुच्छ आँधी में भटक रहे हैं तो एक क्षण रुक कर शान्तिपूर्वक विचार कीजिए, अपने विवेक को जागृत कीजिये और विश्वास कीजिये। यदि दूसरों को पीड़ित करके आप कुछ सफलता पा भी लें तो इससे आपका भला होना सम्भव नहीं। इसके बदले तो आपको पश्चात्ताप की आन्तरिक यन्त्रणायें ही मिलेंगी। इनसे तो लोक-परलोक सभी कुछ बिगड़ने वाला है। उचित यही है कि अन्तःकरण की दैवीय शक्ति को जागृत कीजिये और देवत्व के विकास में निष्ठापूर्वक लग जाइये। हजारों करोड़ों जन्मों के पश्चात मिले मनुष्य जन्म को पाप परिताप की भट्टी में झोंक देना बुद्धिमानी नहीं। इससे तो आप जीवन लक्ष्य से दूर ही होते चले जायेंगे। तो आइये ! यह प्रण लें कि आज आपको जो सुअवसर मिला है उसका आप सदुपयोग करेंगे। अतः अमूल्य मानव जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम अपने जीवन लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयत्नशील हों। इसके लिये सर्वप्रथम हमें अपने अन्तःकरण को निर्मल और पवित्र बनाना पड़ेगा।
*भाजपा के महानगर अध्यक्ष राजेंद्र मिश्र* जी कहा कि एक ऐसा समाज जो स्वयं की आलोचना, निन्दा एवं आत्महीनता में गौरव का बोध कर रहा था। एक ऐसा समाज जो अपनी संस्कृति, अपनी परम्परा और अपने आदर्शों के प्रति श्रद्धा भाव खो चुका था। एक ऐसा समाज जो गुलामी की बेड़ियों को ही वरदान मान चुका था। भारत के उस आत्मविस्मृति सोए हुए समाज को आत्म-गौरव से परिपूर्ण कर नव चेतना एवं नव स्फूर्ति का संचार करने वाले आध्यात्मिक एवं सामाजिक पुनर्जागरण करने वाले स्वामी विवेकानंद जयंती पर बारम्बार प्रणाम।
*इस अवसर पर भाजपा के महानगर मीडिया प्रभारी राजेश केसरवानी, चंद्रसेन शर्मा और माहेश्वरी जी* ने भी स्वामी विवेकानंद जयंती पर अपने विचार रखे हैं।
*कार्यक्रम की अध्यक्षता चंद्र सेन शर्मा एवं संयोजन और संचालन पवन राष्ट्रवादी ने किया।*
कार्यक्रम में प्रमोद मोदी, संजय कुशवाहा, शिव भारतीय, अमरजीत सिंह, दीपक कुशवाहा, मनोज कुशवाहा, पियूष सिंह, अरूण सिंह पटेल, पवन गुप्ता, निरंकार त्रिपाठी, अंजनि सिंह, संदीप गोस्वामी, चंदन भट्ट, दिग्विजय सिंह, शोभिता श्रीवास्तव, अंजलि गोस्वामी, राधा कुशवाहा, मधुलिका मिश्रा, आदित्य तिवारी, कुंजबिहारी तिवारी, विनय मिश्रा, अतुल केसरवानी, विकास पाण्डेय, कविराज, प्रमोद पटेल सहित अन्य कई लोग उपस्थित रहे।