हजरत निजामुद्दीन औलिया की बनवायी हुयी ये बावली 8 सदियां बीत जाने के बाद, आज भी बरक़रार है।

ज्ञान राष्ट्रीय

हजरत निजामुद्दीन औलिया की बनवायी हुयी ये बावली 8 सदियां बीत जाने के बाद, आज भी बरक़रार है। हालांकि इसकी खूबसूरती अब ऐसी नहीं रही जैसी अपनी दौर में हुआ करती थी। हजरत निजामुद्दीन औलिया की इस बावली का तुलगलाकाबाद किले के खंडहर से जुड़ा हुआ एक बेहद दिलचस्प किस्सा है।

यह बात है 14वीं सदी की दिल्ली में सुल्तान गयासुद्दीन तुग़लक़ की हुकूमत कायम थी, सुल्तान ने एक नया शहर तुगलकाबाद बनाने का फरमान जारी किया, और दिल्ली के सभी मजदूरों को नए शहर की फसिलों और किले की तामीर में लगा दिया गया।

ऐन उसी वक्त निजामुद्दीन औलिया ने भी बावली बनवाने का फैसला किया। और बावली की तामीर का काम भी काम जारी हो गया। अभी चंद ही दिन गुजरे होंगे की सुल्तान के कानों में ये बात आन पड़ी की दिल्ली में कहीं और भी तामीराती काम चल रहा है। फिर क्या था सुल्तान के हुक्म पर बावली की तामीर में लगे सभी मजदूरों को किले के काम में वापस लगा दिया गया।

लेकिन हजरत निजामुद्दीन औलिया भी एक सूफी बुजुर्ग थे, लोगों के दिलों में उनका बहुत एहतराम था, लिहाजा उन्होंने मजदूरों को रात में काम करने के लिए मना लिया। तो अब कुछ मजदूर दिन में तुगलकाबाद किले में काम करते थे और रात को निजामुद्दीन औलिया की बावली के लिए काम करते थे। चंद दिनों बाद सुल्तान के लोगों ने ये गौर किया की कुछ मजदूर ऐसे हैं जो काफी सुस्त रहते हैं और आराम करते हुए दिखाई देते हैं, जब उन्होंने इसका सबब जानना चाहा तो उन्हें पता चल गया की की रात की तारीकी में मशाल जला कर बावली का काम अब भी जारी है।

लिहाजा सुल्तान के हुक्म पर हजरत निजामुद्दीन औलिया की तेल तेल की सप्लाई रोक दी गयी। जिससे एक बार फिर बावली का काम बंद होने का खतरा सामने आ गया निजामुद्दीन औलिया सुल्तान के इस हुक्म से काफी परेशान हुए, निजामुद्दीन औलिया की इस बावली की तामीर का काम उनके शागिर्द नसीरुद्दीन महमूद की देखरेख में हो रहा था। अब जब रात की तारीकी में मजदूर वहां पहुंचे तो वहां उजाले के लिए कोई शमा रोशन नहीं थी। उस वक्त निजामुद्दीन औलिया के शागिर्द नसीरुद्दीन महमूद ने बावली का पानी घड़ों में भरा और दीया जला दिया। दिया के रोशन होते ही वापस काम जारी हो गया। इस वाकये के बाद से ही उन्हें रोशन चिराग-ए-दिल्ली के नाम से जाना जाने लगा। बैरहाल बावली की तामीर का काम तो किसी तरह होता रहा, उसी वक्त बंगाल में बगावत हो गयी जिससे सुल्तान को अपने लश्कर के साथ बंगाल कूच करना पड़ा सुल्तान ने बंगाल की बगावत को कुचल दिया और वापस दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे, ये बात निजामुद्दीन औलिया के कानों तक गयी, तो इसपर उन्होंने फ़ारसी में एक लाइन कहा, हुनुज दिल्ली दूर अस्त जिसका मतलब है की दिल्ली अभी दूर है।

सुल्तान वापसी में कौशाम्बी के एक कस्बे कारा में अपने शाही शामियाने में आराम फरमा रहे थे तभी शामियाना उन पर गिर पड़ा जिस में वो फौत हो गए। और जिंदा सलामत दिल्ली वापस नहीं लौट सके और साथ ही सुल्तान ने जिस किले और शहर का ख्वाब देखा था वो भी कभी पूरा न हो सका। हां निजामुद्दीन औलिया की बावली का काम ज़रूर पूरा हो गया। ऐसा कहा जाता है की ये निजामुद्दीन औलिया की बद्दुआ का ही असर था, जो सुल्तान गयासुद्दीन जिन्दा सलामत दिल्ली लौट न सके और न ही तुगलकाबाद के किले की तामीर का काम कभी पूरा हो सका।

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