बड़े बाबा जिनालय में भव्य कलशारोहण 11 जून को होगा
आचार्य श्री समयसागर महाराज जी के प्रवचन हुए
कुंडलपुर दमोह ।सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र ,जैन तीर्थ कुंडलपुर में जिन सूर्य संत शिरोमणि युग श्रेष्ठ आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महाराज के वरद हस्त से दीक्षित विद्या शिरोमणि आचार्य श्री समयसागर जी महामुनिराज के चतुर्विध संघ के मंगल सानिध्य में आयोजित बड़े बाबा जिनालय कलशारोहण एवं सहस्त्रकूट जिनबिम्ब वेदी प्रतिष्ठा महा महोत्सव के अवसर पर 10 जून को प्रातः अभिषेक, शांतिधारा नित्यमह पूजन हुई
पूज्य बड़े बाबा का अभिषेक, शांतिधारा, पूजन, विधान हुआ। शांतिधारा का वाचन निर्यापक श्रमण मुनि श्री योग सागर जी महाराज द्वारा किया गया।भगवान श्री धर्मनाथ जी के निर्वाण महोत्सव पर निर्वाण लाडू चढ़ाया गया। नवनिर्मित बुंदेलखंड के प्रथम सहस्त्रकूट जिनालय में प्रतिमा स्थापित करने का क्रम आज भी निरंतर जारी रहा । प्रचार मंत्री जयकुमार जैन जलज ने बताया
कि बड़ी संख्या में जिन श्रावक श्रेष्ठि को सहस्त्रकूट जिनालय में प्रतिमा विराजमान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है उन्होंने अपने परिवार जनों के साथ अपने कर कमल से सहस्त्रकूट जिनालय में प्रतिमा विराजित करने का सौभाग्य अर्जित किया ।श्रद्धालु भक्तगण बहुत उत्साह के साथ प्रतिमाएं लेकर सहस्त्रकूट जिनालय में स्थापित कर रहे हैं।
क्रेन के माध्यम से गगन विहार करते हुए प्रतिमा सहस्त्रकूट के ऊपरी भाग में स्थापित की जा रही हैं ।समस्त मुनि संघ एवं आर्यिका संघ ने सहस्त्रकूट जिनालय पहुंचकर जिनालय का अवलोकन किया। इस अवसर पर चित्र अनावरण एवं दीप प्रज्वलन श्रेष्ठी सुधीर जी विपिन जी ने किया। पाद प्रक्षालन एवं शास्त्र भेंट का सौभाग्य भी श्रेष्ठी सुधीर जी विपिन जी परिवार को प्राप्त हुआ। जिन्हें बड़े बाबा मंदिर के ऊपर कलशारोहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
इस अवसर पर परम पूज्य आचार्य श्री समय सागर जी महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा आत्मगत भावों की यहां पर चर्चा की जा रही है। कुछ भाव उत्पन्न होते हैं आत्मा में जो की परक्षापेक्ष्य हुआ करते हैं ।कुछ भाव ऐसे भी उत्पन्न होते हैं जो कर्म निरपेक्ष हुआ करते हैं। उसे समझने के लिए प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव जो कि वह मिथ्या दृष्टि माना जाता है और मिथ्यात्व कर्म के उदय से श्रद्धान रूप जो भाव उत्पन्न होता है उसको मिथ्यात्व बोला है
यह कर्म सापेक्ष भाव सिद्ध होता है। इसलिए इस प्रकार बहुत सारे भाव हैं किंतु कर्मनिरपेक्ष भाव हुआ करते हैं जिन भावों के उत्पन्न होने में ना कर्म के उदय की अपेक्षता है ना कर्म के उपशम की न क्षयोपशम की ना क्षय की अपेक्षा है किंतु उनकी अपेक्षा के बिना भी भाव उत्पन्न होते हैं। जिनको परिणामिक भाव की संज्ञा दी गई है
।समझने के लिए उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करेंगे। क्योंकि सिद्धांत का विषय गूढ़ हुआ करता है उसको समझने के लिए एक छोटा सा दृष्टांत दिया जाता है की अग्नि की उष्णता अग्नि में ईंधन को जलाने की क्षमता है अग्नि में वस्तु को प्रकाशित करने की क्षमता है और अग्नि में अन्न को पकाने की क्षमता है यह सारी की सारी क्षमताएं उस अग्नि में है किंतु वह अग्नि ईंधन को जलाती है।किसके माध्यम से जलाती है
अग्नि ईंधन को उष्ण गुण के माध्यम से ही ईंधन को जलाती है। जो अग्नि में उष्ण गुण का संबंध है किसी कर्म की अपेक्षा के बिना उसका संबंध हो जाता है। इसी को परणामिक भाव बोला है। अग्नि की उष्णता अपने आप में किसी अन्य कारण की अपेक्षा रखें बिना स्वयं का ही वह गुण माना जाता है किसी कारण से अग्नि गर्म हुई हो इन्हीं कारण को लेकर के हम अग्नि को उसकी उष्णता सिद्ध करते हैं तो उष्ण गुण के अभाव में अग्नि ठंडी होनी चाहिए थी ऐसा तो होता नहीं है उसमें कारण निरपेक्ष वह उष्णता मानी जाती है
।इसी प्रकार जल की शीतलता भी किसी कारण अपेक्षा के रखे बिना उसमें शीतलता अपने आप में निजी परणति है ।वह भाव है इसी प्रकार कुछ भाव पारणामिक हुआ करते हैं ।जो की जीवगत भाव माने जाते हैं। समझने के लिए भव्यत्व भाव और अभव्यत्व भाव और जीवत्व भाव यह तीनों भाव किसी कर्म की अपेक्षा नहीं रखते हैं। स्वयं चैतन्य गुण की अपेक्षा से वह जीव जी रहा है जियेगा और जी चुका है ।
उसका नाम जीव कहा है उसमें भाव और अभव्यत्व भाव सामने आते हैं। बहुत मार्मिक विषय है गुरुदेव के सामने किसी सज्जन ने अपनी पीड़ा व्यक्त की भगवन मुझे बहुत विकल्प सताता है क्यों सताता है इसलिए सताता है मैं भव्य हूं कि अभव्य हूं ।यह मुझे बड़ी आकुलता है और पीड़ा है मैं भव्य हूं कि अभव्य हूं ।तो गुरुदेव ने कहा शांति से बैठो क्योंकि अभव्य को कोई पीड़ा होती नहीं। क्योंकि मोक्ष को प्राप्त करने की उत्कंठा जिसमें है अपना हित चाहता है उसका नाम भव्य बोला है ।हित कहां पर निहित है दिल्ली में आप कहां रहते हैं मैं दिल्ली रहता हूं मैं आगरा रहता हूं मैं मुंबई रहता हूं अपने-अपने स्थान को वह बताते हैं किंतु आचार्य कहते हैं मैं आत्मा में रहता हूं वस्तुतः भव्य किसको बोलते हैं जो रत्नात्रय को प्राप्त करने प्रकट करने की क्षमता जिसमें विद्यमान रहती है उसको भव्य घोषित किया है।
और रत्नात्रय को प्राप्त करने की अभिव्यक्त करने की क्षमता योग्यता जिसमें नहीं है उसे अभव्य कहा है । भव्य और अभव्य जो विषय हैं दोनों परिणामिक भाव हैं केवली भगवान जान सकते हैं कौन भव्य कौन अभव्य है।